इक इंफ़िआल को ताक़त समझ रहे हो तुम सवाल ये है कि किस तरह सोचते हो तुम बहार आग न देगी तुम्हारे चूल्हों को ये और बात कि इस से बहल गए हो तुम दयार-ए-वहम-ओ-गुमाँ में न अब हरम है न दैर उजड़ी चुकी है वो बस्ती जिधर चले हो तुम दिया न इश्क़ ने जब कुछ तो अक़्ल क्या देगी अब इस से माँगते हो चैन बावले हो तुम जबीन-ए-शौक़ को अपनी कहाँ झुकाना था कहाँ झुकी है ज़रूरत कहाँ झुके हो तुम पसंद आएगी क्यूँ अपने देस की कोई चीज़ बिदेसियों के निवाले पे जी रहे हो तुम न मिल सका जिसे ईंधन जलेगी आग वो क्या दिल-ए-'जमील' को नाहक़ कुरेदते हो तुम