इक ज़रा गर्म लू के चलते ही फूल मुरझा गए हैं खिलते ही जाग उट्ठीं ज़रूरतें सब की आफ़्ताब-ए-सहर निकलते ही दिन गए रेग-ए-मुश्त की मानिंद रह गए लोग हाथ मलते ही सज के आई है आज शाम-ए-ग़म बुझ गया दिल चराग़ जलते ही उस के तेवर बदलने लगते हैं मेरे हालात के बदलते ही जाने कैसा तज़ाद है हम में गिर पड़े तुम मिरे सँभलते ही सारा मंज़र बदलने लगता है 'शाद' के पैरहन बदलते ही