इक नश्तर-ए-नज़र के तलबगार हम भी हैं दाता हो तुम ग़मों के तो ग़म-ख़्वार हम भी हैं हैराँ खड़े हुए उन्हीं राहों में हैं हनूज़ ऐ रहरवान-ए-कूचा-ए-दिल-दार हम भी हैं दरिया समझ लिया जिसे निकला वही सराब इक हर्फ़-ए-तिश्नगी के गुनहगार हम भी हैं मुँह राह-ए-नज्द-ए-शौक़ से मोड़ा नहीं अभी हाँ जुर्म-ए-ख़स्तगी के ख़तावार हम भी हैं इस बाग़ में कि ज़ाग़-ओ-ज़ग़न हैं अमीन-ए-गुल ख़ामोश देखने के सज़ा-वार हम भी हैं