इक शक्ल बे-इरादा सर-ए-बाम आ गई फिर ज़िंदगी में फ़ैसले की शाम आ गई दश्त ओ मकाँ के फ़ासले बे-रंग-ओ-नूर थे इक रंग ले के गर्दिश-ए-अय्याम आ गई वो रहगुज़र जो आई तो सर को सजा लिया दामन की ख़ाक आज मिरे काम आ गई फिर इक हिसार टूट गया इख़्तियार का फिर इक सदा-ए-कूचा-ए-इल्ज़ाम आ गई हम बोलते रहे तो रहे लफ़्ज़ संग-ए-राह चुप हो गए तो मंज़िल-ए-इल्हाम आ गई 'साबिर' ज़मीं पे रंज भी उस ने उतारे हैं लेकिन ये फ़र्द-ए-जुर्म मिरे नाम आ गई