इक तमाशा हम अनोखा देखते ख़ुद को हँसता सब को रोता देखते सर से पा तक उस को पूरा देखते ख़ुद को जब आधा अधूरा देखते ख़ुद तमाशा बन गए दुनिया में हम वर्ना दुनिया का तमाशा देखते क्यूँ भला घर लौटते हम दश्त से क्यूँ भला देखा-दिखाया देखते वुसअ'तें मिलती अगर बीनाई को दश्त से घर घर से सहरा देखते पुश्त पर बौछार तीरों की हुई वर्ना हम क़ातिल का चेहरा देखते काश हो जाते किसी मेले में गुम और फिर जी भर के मेला देखते एक ही थी ज़िंदगी सय्यद 'सरोश' कुछ तो कर के उल्टा सीधा देखते