इक वो भी दिन थे तुझ से मिरा राब्ता न था संजीदगी से तेरे लिए सोचता न था नफ़रत मिली तो ज़ोम-ए-वफ़ा टूट टूट कर बिखरा कुछ इस तरह कि कोई वास्ता न था कमरे में फैलती ही गई रौशनी की लहर किरनों का जाल था कि कहीं टूटता न था देखा तुझे तो चाँद भी पेड़ों में छुप गया वैसे तो शहर भर में कोई चाँद सा न था वो अपनी ज़ात में ही मुक़य्यद रहा 'नियाज़' सब देखते थे उस को कोई ढूँढता न था