इला या शाह-ए-ख़ूबाँ कीजिए शाद हुए जाते हैं आशिक़ ग़म से बरबाद हमें तुम याद हो हर लहज़ा लेकिन हमारी भी कभी तो कीजिए याद गिरफ़्तार-ए-बला बालाए तू यार ग़म-ए-दौराँ से हैं जूँ सर्व आज़ाद अगर लैला है तू मजनूँ हैं हम वगर शीरीं है तू हम हैं फ़रहाद वही ईराद कर सकता है आख़िर किया है जिस ने अव्वल हम को ईजाद किसी शय को दरुस्त-ओ-चुस्त दाएम न देखा दर-जहान-ए-सुस्त बुनियाद शेर है अश्क-ए-चश्म-ओ-लख़्त-ए-दिल से उठाया चाहिए हम-आब ओ हम-ज़ाद गुल-ए-तर ख़ार से समझें बतर-तर जो देखें अंदलीबाँ रोते सय्याद गुलू-ए-गुल तो पकड़े आख़िर-कार गए कब राएगाँ बुलबुल के फ़रियाद अबस करते हो बहर-ए-तर्क तकरार अज़ीज़ो हूँ मैं दुख़्त-ए-रज़ का दामाद नहीं जिस रोज़ मीआ'द आमद-ए-यार वही हम जानते हैं रोज़-ए-मीआ'द बहुत फ़रज़ाना थे दीवाने हम को बनाए शोख़ तिफ़्लान-ए-परी-ज़ाद हमल मिर्रीख़ माशूक़ों ने मेरा किया है सर जुदा अज़ तेग़-ए-बे-दाद हज़ाराँ शुक्र मुल्क-ए-सिंध में भी मिरा मस्कन है शहर-ए-हैदराबाद जनाब हैदर-ए-सफ़दर से 'मातम' तलब औक़ात-ए-मुश्किल में कर इमदाद