इलाही आसमाँ टूटे कभी शब-हा-ए-फ़ुर्क़त पर पड़े हैं जान के लाले मुसीबत है मुसीबत पर जफ़ा की ले के दिल हम से जलाया मिल के दुश्मन से मगर दा'वा-ए-बातिल था हमारा उस की उल्फ़त पर सियह-बख़्ती का अपनी खुल गया है नामा-ए-आमाल अंधेरा छा गया है देखना सुब्ह-ए-क़यामत पर उन्हें रोते हुए देखा है अक्सर हिज्र-ए-दुश्मन में ख़ुदा की शान है हँसते थे जो मेरी मुसीबत पर मुझे वो देखते ही नीली पीली आँखें करते हैं मिरी तक़दीर का लिक्खा नज़र आता है सूरत पर ये किस नाकाम-ए-उल्फ़त की है मातम की सियह-पोशी इलाही छा गई कैसी उदासी शाम-ए-फ़ुर्क़त पर बहाना है हमारी जान लेने के लिए ये भी किसी का वा'दा-ए-दीदार और वो भी क़यामत पर मिरी तरह से आवारा है ये भी कोह ओ सहरा में जमाया रंग अपना बख़्त-ए-बरगश्ता ने क़िस्मत पर मुझे अब आँख भर कर तुम से भी देखा न जाएगा तुम्हारे हुस्न-ए-आलम-ताब का परतव है सूरत पर कभी होंगी पशेमाँ भी तुम अपने ज़ुल्म-ए-बे-जा से तुम्हें भी रहम आएगा कभी बीमार-ए-फ़ुर्क़त पर भरी महफ़िल में बरसा और वो भी ग़ैर के आगे फ़क़त इतना कहा था मैं मरा हूँ तेरी सूरत पर मिरे सोते कभी अग़्यार के घर ये न जाएगी वफ़ादारी मिरी साया-फ़िगन है शाम-ए-फ़ुर्क़त पर ज़माने की दो-रंगी से उमंगें मिट गईं सारी कभी था नाज़ हम को भी 'फ़रोग़' अपनी तबीअ'त पर