मुमकिन जो हुई हम से वो तदबीर करे हैं जो ज़ख़्म हरे थे हाँ अभी तक वो हरे हैं बतलाओ तो रक्खें भी कहाँ ग़म के दफ़ीने बर्तन जो मयस्सर थे हमें सारे भरे हैं अब कैसे मिले जन्नत-ओ-दोज़ख़ की बशारत आ'माल के सिक्के तो सभी खोटे खरे हैं बरसों से इस एहसास में हलचल नहीं कोई इक उम्र हुई हाथ पर हम हाथ धरे हैं बे-ख़ौफ़ हैं इस दौर में शैताँ के पुजारी अल्लाह के बंदे तो सभी सहमे डरे हैं रहता ही नहीं है किसी रिश्ते में तवाज़ुन जो अक़्ल के नज़दीक हैं वो दिल से परे हैं मरने के लिए कौन जिया है यहाँ 'ख़ंदा' देखा है कि जीने के लिए लोग मरे हैं