इलाही जान दी है मैं ने किस के रू-ए-रौशन पर हज़ारों शमएँ परवाना बनी हैं मेरे मदफ़न पर तअ'ज्जुब क्या ख़मीदा हो अगर तलवार क़ातिल की चढ़ा है ख़ून किस किस बे-गुनह का उस की गर्दन पर वो बे-इंसाफ़ और अपनी वफ़ा की दाद या क़िस्मत गुमान-ए-दोस्ती है सादगी से हम को दुश्मन पर अजब उस जल्वा-ए-यकता में नैरंग-ए-तमाशा है नई सूरत से चमका ख़ातिर-ए-शेख़-ओ-बरहमन पर मैं हूँ मरहून-ए-मिन्नत सुल्ह-ए-कुल का जब से ऐ 'अरशद' यक़ीन-ए-दोस्ती होने लगा है मुझ को दुश्मन पर