इक उम्र से जिस को लिए फिरता हूँ नज़र में वो रूप है सूरज में न वो रंग सहर में चलती हैं हवाएँ तो बरस जाती हैं आँखें छाए हैं तिरी याद के बादल मिरे घर में हैराँ हुए जाते हैं मुझे देखने वाले आईना मुअ'ल्लक़ है मिरे दीदा-ए-तर में इक चाँद को छूने की तमन्ना में हूँ पागल बादल सा उड़ा जाता हूँ ख़्वाबों के सफ़र में मोती मिरी आँखों ने लुटा डाले हैं 'फ़ाख़िर' ख़ुश-रंग कोई फूल खिला जब भी जिगर में