इलाही तौबा दुनिया में ये कैसा इंक़लाब आया यहाँ कोई नहीं अपना अज़ीज़ों का जवाब आया मिरे नज़्ज़ारा-ए-पुर-शौक़ की तकमील क्या होती इधर पलकों ने जुम्बिश की उधर रुख़ पर नक़ाब आया उसी की दीद की ख़ातिर रही हैं मुंतज़िर आँखें जो फ़ित्ना-गर रुख़-ए-पुर-नूर पर डाले नक़ाब आया ख़मोशी ही फ़क़त है दास्ताँ अपनी दिल-ए-मुज़्तर फ़रेब-ए-ज़िंदगी खाया अलम भी बे-हिसाब आया वो इज़हार-ए-मोहब्बत पर मिरे घबरा के यूँ बोले फ़लक ने क्या सितम ढाया ख़ुदाया क्या अज़ाब आया जलन से ग़ैर के चेहरे की रंगत उड़ गई 'नश्तर' अभी ख़ाली हमारे हाथ में जाम-ए-शराब आया