सर से बाँधे कफ़न निकलता हूँ गोद में मौत की मैं पलता हूँ रास्ता हर घड़ी बदलता हूँ मैं नदी की तरह मचलता हूँ भूल जाता हूँ सब सितम उन के इक तबस्सुम से मैं बहलता हूँ वो तो मिलते नहीं हैं मिल के भी हिज्र की आग में मैं जलता हूँ तू ही हमराह मेरे दर-पर्दा वर्ना गिर के मैं क्यों सँभलता हूँ चाल वो चल गए क़यामत की बेकसी पर मैं हाथ मिलता हूँ दर्द से कह रहा है ये नश्तर तू अब आराम कर मैं चलता हूँ