इल्ज़ाम-ए-तीरगी के सदा उस पे आए हैं जिस ने चराग़ अपने लहू से जलाए हैं शायद उसे हमारी अना का गुमाँ न था हम तिश्नगी पटक के समुंदर से आए हैं ये दिलकशी सुबूत है ऐ जान-ए-शाइ'री फूलों ने रंग तेरे लबों से चुराए हैं हैराँ है वो भी वुसअ'त-ए-पर्वाज़ देख कर जिस ने हमारी फ़िक्र पर पहरे बिठाए हैं तर्क-ए-तअल्लुक़ात पे वो भी थे ग़म-ज़दा और हम भी अपनी ज़ात से जंग हार आए हैं अब नाम क्या बताऊँ कि ग़म किस का है 'सबा' आँखें मिरी ज़रूर हैं आँसू पराए हैं