इल्ज़ाम था दिए पे न तक़्सीर रात की हम ने तो बस हवा के तअ'ल्लुक़ से बात की हर सुब्ह जब कि सुब्ह-ए-क़यामत की तरह आए ऐसे में कौन होगा जो सोचे सबात की तकलीफ़ तो हुई मगर ऐ नाख़ुन-ए-मलाल खुलने लगी गिरह भी कोई अपनी ज़ात की ज़ंजीर है जज़ीरा है या शाख़-ए-बे-समर अब कौन सी लकीर सलामत है हात की मरने अगर न पाई तो ज़िंदा भी कब रही तन्हा कटी वो उम्र जो थी तेरे साथ की फिर भी न मेरा क़ाफ़िला लुटने से बच सका मैं ने ख़बर तो रक्खी थी एक एक घात की