इमारत का कोई नश्शा नहीं था अना के घर से जब निकला नहीं था मुझे तो याद ही आता नहीं है कोई लम्हा कि जब तड़पा नहीं था मैं सब के वास्ते अच्छा था लेकिन उसी के वास्ते अच्छा नहीं था मगर तश्बीह उस को किस से देते अभी तो चाँद भी निकला नहीं था अजब अय्याम-ए-शौक़-ए-दीद गुज़रे कभी रातों को मैं सोता नहीं था हमारे ख़्वाब में साए कई थे किसी के दोश पर चेहरा नहीं था खुली जो आँख तो देखा ये मैं ने अभी तो हश्र ही बरपा नहीं था