इम्तिहाँ ज़ब्त का फिर बज़्म-ए-गह-ए-नाज़ में है जल्वा-ए-तूर निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ में है अहल-ए-दिल दीदा-ए-तर देख के पहचान गए मैं समझता था मिरी बात अभी राज़ में है आशियाने को नहीं बर्क़-नवाज़ी से पनाह एक ही लुत्फ़ वही सोज़ में है साज़ में है मेरे मिटने का करें सोग किसी के दुश्मन क्यूँ उदासी सी किसी जल्वा-गह-ए-नाज़ में है जान-ए-नग़्मा है मिरे टूटे हुए दिल की सदा इक यही तार-ए-शिकस्ता है जो हर साज़ में है गुल-ओ-बुलबुल से अदावत नहीं 'कैफ़ी' लेकिन क्यूँ हूँ बेज़ार चमन से ये अभी राज़ में है