इन अंधेरों से परे इस शब-ए-ग़म से आगे इक नई सुब्ह भी है शाम-ए-अलम से आगे दश्त में किस से करें आबला-पाई का गिला रहनुमा कोई नहीं नक़्श-ए-क़दम से आगे साज़ में खोए रहे सोज़ न समझा कोई दर्द की टीस थी पाज़ेब की छम से आगे ऐ ख़ोशा अज़्म-ए-जवाँ ज़ौक़-ए-सफ़र जोश-ए-तलब हादसे बढ़ न सके अपने क़दम से आगे याद है लज़्ज़त-ए-आज़ार-ए-मोहब्बत अब तक दिल को मिलता था सुकूँ मश्क़-ए-सितम से आगे सुर्ख़-रू है जहाँ तारीख़-ए-दो-आलम 'इशरत' ख़ून टपका है वहीं नोक-ए-क़लम से आगे