इन हुस्न के मारों के ग़म-ख़ाने हज़ारों हैं इक जुम्बिश-ए-अबरू में पैमाने हज़ारों हैं कब होश-ओ-ख़िरद वाले करते हैं नज़र उन पर छलके हुए मस्ती में पैमाने हज़ारों हैं हाँ नक़्श-ए-कफ़-ए-पा को तू ख़ुद ही मिटा देना उश्शाक़ के सज्दों को बुत-ख़ाने हज़ारों हैं क्यों क़ैस को ले बैठे तुम होश-ओ-ख़िरद वाले सहरा-ए-मोहब्बत में दीवाने हज़ारों हैं है किस की निगाहों का जादू ये 'शरार' आख़िर दीवानों में जब शामिल फ़रज़ाने हज़ारों हैं