इन के आरिज़ पे अश्कों के धारे जैसे फूलों को शबनम सँवारे ग़म न कर इस जहान-ए-तलब में टूट जाते हैं अक्सर सहारे तुम ने मंतिक़ से उल्फ़त को समझा तुम ही जीते चलो हम ही हारे ग़म की ज़हमत में क्या कुछ न बीती रात काटी है गिन गिन के तारे छोड़ कर मुझ को बहर-ए-अलम में तेरी कश्ती गई है किनारे इस को फ़ख़्र-ए-मोहब्बत न क्यों हो 'दौर' दिल में रहा है तुम्हारे