आईने के आख़िरी इज़हार में मैं भी हूँ शाम-ए-अबद-आसार में देखते ही देखते गुम हो गई रौशनी बढ़ती हुई रफ़्तार में क़तरा क़तरा छत से ही रिसने लगी धूप का रस्ता न था दीवार में अपनी आँखें ही मैं भूल आया कहीं रात इतनी भीड़ थी बाज़ार में बार बार आता रहा है तेरा नाम आईना होती हुई गुफ़्तार में दूर तक बिछती चली जाती थी नींद ख़्वाब आता ही न था इज़हार में