आइने कितने यहाँ टूट चुके हैं अब तक आफ़रीं उन पे जो सच बोल रहे हैं अब तक टूट जाएँगे मगर झुक नहीं सकते हम भी अपने नामों की हिफ़ाज़त में तने हैं अब तक रहनुमा उन का वहाँ है ही नहीं मुद्दत से क़ाफ़िले वाले किसे ढूँड रहे हैं अब तक अपने इस दिल को तसल्ली नहीं होती वर्ना हम हक़ीक़त तो तिरी जान चुके हैं अब तक फ़त्ह कर सकता नहीं जिन को जुनूँ मज़हब का कुछ वो तहज़ीब के महफ़ूज़ क़िले हैं अब तक उन की आँखों को कहाँ ख़्वाब मयस्सर होते नींद भर भी जो कभी सो न सके हैं अब तक देख लेना कभी मंज़र वो घने जंगल का जब सुलग उट्ठेंगे जो ठूँठ दबे हैं अब तक रोज़ नफ़रत कि हवाओं में सुलग उठती है एक चिंगारी से घर कितने जले हैं अब तक उन उजालों का नया नाम बताओ क्या हो जिन उजालों में अँधेरे ही पले हैं अब तक पुर-सुकूँ आप का चेहरा ये चमकती आँखें आप भी शहर में लगता है नए हैं अब तक ख़ुश्क आँखों को रवानी ही नहीं मिल पाई यूँ तो हम ने भी कई शेर कहे हैं अब तक दूर अपनी है अभी प्यास बुझाना मुश्किल और 'द्विज' आप तो दो कोस चले हैं अब तक