कारज़ार-ए-इश्क़-ओ-सर-मस्ती में नुसरत-याब हों वो जुनूनी दार तक जाने को जो बेताब हूँ कोहसारों पर सवा-नेज़े पे सूरज आए तो चोटियों की बर्फ़ पिघले वादियाँ सैराब हों दूसरे साहिल पे कोई सोहनी हो मुंतज़िर हम महींवालों के आगे बहर भी पायाब हूँ आफ़ियत पाते हैं ख़्वाबों के हसीं बहरों में लोग जब हर इक मौज-ए-हक़ाएक़ में निहाँ गिर्दाब हों