इंसान-ए-हवस-पेशा से क्या हो नहीं सकता

इंसान-ए-हवस-पेशा से क्या हो नहीं सकता
मजबूर है इस से कि ख़ुदा हो नहीं सकता

वो उक़्दा मिरे काम में तक़दीर ने डाला
जो नाख़ुन-ए-तदबीर से वा हो नहीं सकता

दहशत से कोई नाम भी लेता नहीं वर्ना
इस बज़्म में क्या ज़िक्र मिरा हो नहीं सकता

क्यूँ कर हो हरीस-ए-सितम-ए-इश्क़ की सेरी
ग़म रिज़्क-ए-मुक़द्दर है सिवा हो नहीं सकता

दिल क्यूँ कि ख़दंग-ए-निगह-ए-यार से बच जाए
ये तीर क़ज़ा का है ख़ता हो नहीं सकता

तम्कीं से न देखे जो कभी आइना झुक कर
वो मुर्तक़िब-ए-शर्म-ओ-हया हो नहीं सकता

मातम-ज़दा के हाथ से घबरा न शब-ए-वस्ल
आदत है कि सीने से जुदा हो नहीं सकता

कहने पे चले दिल के अबस ये भी न जाना
गुमराह कभी राह-नुमा हो नहीं सकता

है चाल तिरी बाइ'स-ए-आसूदगी-ए-हल्क़
ख़जलत के सबब हश्र बपा हो नहीं सकता

ये दर्द है तेरा ही कि है जान से शीरीं
हर दर्द में ज़ालिम ये मज़ा हो नहीं सकता

ऐ ताइर-ए-जाँ शिकवा-ए-तक्लीफ़-ए-क़फ़स क्यूँ
क्या तू क़फ़स-ए-तन से रिहा हो नहीं सकता

ग़ैरत है जो मुझ में तो वो कहते हैं सर-ए-बज़्म
परवाने से जो काम हुआ हो नहीं सकता

वो ग़म-ज़दा बनते हैं मिरी ना'श पे लेकिन
दिल-ख़ुश है कि लब नौहा-सरा हो नहीं सकता

हम ज़मज़मा-संज-ए-अर्नी बन नहीं सकते
तू बाम पे क्या जल्वा-नुमा हो नहीं सकता

मैं इस क़दर अच्छा तो नहीं हूँ कि बहर आऊँ
मंसूर ने दा'वा जो किया हो नहीं सकता

मैं उस निगह-ए-नाज़ का महकूम हूँ 'सालिक'
वाबस्ता-ए-अहकाम-ए-क़ज़ा हो नहीं सकता


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