इंतिहा सब्र-आज़माई की है दराज़ी शब-ए-जुदाई की है बुराई नसीब की कि मुझे तुम से उम्मीद है भलाई की नक़्श है संग-ए-आस्ताँ पे तिरे दास्ताँ अपनी जुब्बा-साई की तुम से कुछ मिल के ख़ुश हुआ हूँ कि हूँ दहर में हसरत आश्नाई की है फ़ुग़ाँ बा'द-ए-इम्तिहान-ए-फ़ुग़ाँ फिर शिकायत है ना-रसाई की क्या न करता विसाल-ए-शादी-ए-मर्ग तुम ने क्यूँ मुझ से कज-अदाई की राज़ खुलते गए मिरे सब पर जिस क़दर उस ने ख़ुद-नुमाई की कितने आजिज़ हैं हम कि पाते हैं बंदे बंदे में लौ ख़ुदाई की रह गईं दिल में हसरतें 'सालिक' आ गई उम्र पारसाई की