इरादों का बदन कोई भी पाइंदा नहीं रखता मिरा इस्म-ए-मुकब्बिर ही मुझे ज़िंदा नहीं रखता अब उस की हाकिमिय्यत चंद पहरों तक सिमट आई वो ऐसे हाल में भी फ़िक्र-ए-आइंदा नहीं रखता चला आता हूँ मैं इल्ज़ाम से पहले कटहरे में अदालत में अना की ख़ुद को शर्मिंदा नहीं रखता सभी लहजों ने दर्स-ए-आफ़ियत तो याद रक्खा है मुसावी सोच लेकिन कोई बाशिंदा नहीं रखता मैं ऐसे सर-फिरे लोगों में बस्ता हूँ जहाँ 'अख़्तर' क़बीला ख़त्म हो जाए नुमाइंदा नहीं रखता