पहाड़ से कोई राह उतरे तो मैं भी देखूँ बुलंदियों से निगाह उतरे तो मैं भी देखूँ गुनाह-कर्दा बदन है उस का तो तुम भी देखो सलीब से बे-गुनाह उतरे तो मैं भी देखूँ सहे हैं बस्ती ने मौसमों के अज़ाब क्या क्या छतों से आब-ओ-गियाह उतरे तो मैं भी देखूँ यहाँ किसे रास आई है रस्म-ए-ख़ुद-नुमाई सरों से ज़ौक़-ए-कुलाह उतरे तो मैं भी देखूँ कहाँ कहाँ जिस्म धूप से हो गए हैं जल-थल नगर में शाम-ए-सियाह उतरे तो मैं भी देखूँ