इस आलम-ए-पुर-दर्द में दुख सब का ख़ुदा है दिल बारगह-ए-दुख में अक़ीदत से खड़ा है ऐ शाम-नशीं रात की तहवील में आ जा इक ख़्वाब तिरी राहगुज़र देख रहा है दानिस्ता कभी छू के वो लज़्ज़त नहीं पाई जो लुत्फ़ किसी लम्स के धोके से मिला है सावन के पुजारी से कहो क्या ही करेगा इस बार तो आँखों में ग़ज़ब काल पड़ा है वो कोई क़यामत नहीं बस आफ़त-ए-जाँ था बेकार तिरे शहर में इक हश्र बपा है सब हार दिए जाने का ग़म छोड़ युधिष्ठिर माधव की तरफ़ से ये शुभारम्भ हुआ है