इस दौर में सब अपना चलन भूल गए हैं हद ये है कि फ़नकार भी फ़न भूल गए हैं सय्याद सुनाएँ तुझे क्यूँकर वही नग़्मे हम लहजा-ए-अर्बाब-ए-चमन भूल गए हैं है अपनी जगह आज भी हर रस्म-ए-ज़माना लेकिन हमीं आईन-ए-वतन भूल गए हैं मंज़िल के निशाँ मर के भी वो पा न सकेंगे जो लोग रह-ए-दार-ओ-रसन भूल गए हैं अफ़्सोस मिला है उन्हें कब इज़्न-ए-रिहाई जब अहल-ए-क़फ़स राह-ए-चमन भूल गए हैं किस तरह शिकायत करें बे-ताबी-ए-दिल की क्या हम तिरे माथे की शिकन भूल गए हैं पुरसाँ नहीं ग़ुर्बत में मिरा कोई भी 'कशफ़ी' शायद मुझे यारान-ए-वतन भूल गए हैं