इस गोशा-ए-उज़्लत में तन्हाई है और मैं हूँ माशूक़-ए-तसव्वुर से यकजाई है और मैं हूँ या घर से क़दम मेरा बाहर न निकलता था या शहर की गलियों में रुस्वाई है और मैं हूँ जिस दश्त में नाक़े का गुज़रा न क़दम हरगिज़ उस दश्त में मजनूँ सा सौदाई है और मैं हूँ नासेह की न मैं मानूँ हमदम की न कुछ समझूँ इस इश्क़-ओ-मोहब्बत में ख़ुद-आराई है और मैं हूँ हर-चंद जुनून-ए-इश्क़ होता है ख़िरद-दुश्मन ऐ 'मुसहफ़ी' इस पर भी दानाई है और मैं हूँ