इस हाल में जीते हो तो मर क्यूँ नहीं जाते यूँ टूट चुके हो तो बिखर क्यूँ नहीं जाते कैसे हैं ये अरमान ये काविश ये तग-ओ-दौ मंज़िल नहीं मालूम तो घर क्यूँ नहीं जाते अश्कों की तरह क्यूँ मिरी पलकों पे रुके हो ख़ंजर की तरह दिल में उतर क्यूँ नहीं जाते माना कि ये सब ज़ख़्म-ए-जिगर तुम ने दिए हैं मरहम से किसी और के भर क्यूँ नहीं जाते आईना है माहौल है अस्बाब हैं तुम हो ख़ातिर मिरी इक बार सँवर क्यूँ नहीं जाते बे-ख़ुद थे किया ग़ैर से वअ'दा मुझे मंज़ूर आया है अगर होश मुकर क्यूँ नहीं जाते ऐ 'ताज' उम्मीदों के ये मौसम भी अजब हैं हर रुत की तरह ये भी गुज़र क्यूँ नहीं जाते