इस हक़ीक़त के सिवा क्या शहर क्या वीराना था या मिरा अफ़्साना था या आप का अफ़्साना था सेहर आँखों का तिरी क्या साक़ी-ए-मय-ख़ाना था मय-कशों पर कैफ़ तारी रक़्स में पैमाना था यूँ तजस्सुस में किसी की फिर रहा था कू-बकू अश्क-ए-ख़ूँ आँखों में लब पर इश्क़ का अफ़्साना था वो भी क्या दिन क्या ज़माना था कि जब सब के लिए फ़ैज़-ए-साक़ी आम था और वा दर-ए-मय-ख़ाना था रह गया बन कर जुनून-ए-इश्क़ शरह-ए-काएनात एक वो लफ़्ज़-ए-अनल-हक़ जो कि गुस्ताख़ाना था एक ही मरकज़ पे था नज़्ज़ारा-ए-नाज़-ओ-नियाज़ मेरी सूरत से अयाँ अक्स-ए-रुख़-ए-जानाना था 'दर्द' उस की ज़िंदगी भी थी भला क्या ज़िंदगी ग़म से जो ना-आश्ना था दर्द से बेगाना था