इश्क़ गर दोनों जहाँ में कामराँ होता नहीं ये ज़मीं होती नहीं ये आसमाँ होता नहीं जो भटक जाता है मंज़िल से वुफ़ूर-ए-शौक़ में दर-हक़ीक़त वो हमारा कारवाँ होता नहीं इश्क़ कहते हैं जिसे इक आतिश-ए-ख़ामोश है दिल ही दिल में जो सुलगती है धुआँ होता नहीं शम्अ' पर किस शान से गिर कर पतंगे ने कहा इश्क़ में अंदेशा-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ होता नहीं ख़ौफ़-ए-रोज़-ए-हश्र है उस को न कुछ फ़िक्र-ए-जज़ा ज़िंदगी में जिस को मरने का गुमाँ होता नहीं ज़िंदगी में हर क़दम पर ठोकरें खाईं मगर दिल के आईने पे अक्स-ए-ग़म अयाँ होता नहीं 'दर्द' मेरे इश्क़ ने उन को नुमायाँ कर दिया वर्ना दुनिया में कहीं नाम-ओ-निशाँ होता नहीं