इस इश्क़ के हाथों से हरगिज़ न मफ़र देखा उतनी ही बढ़ी हसरत जितना ही उधर देखा था खेल सा पहले इश्क़ लेकिन जो खुलीं आँखें डूबा हुआ रग रग में वो तीर-ए-नज़र देखा सब हो गई उठ उठ कर इक बाज़ निसार शम्अ परवानों ने क्या जाने क्या वक़्त-ए-सहर देखा वो अश्क भरी आँखें और दर्द भरे नाले अल्लाह न दिखलाए जो वक़्त-ए-सहर देखा क़ुर्बां तिरी आँखों के सदक़े तरी नज़रों के था हासिल-ए-सद-नावक जो ज़ख़्म-ए-जिगर देखा जाते रहे दम-भर में सारे ही गिले शिकवे उस जान-ए-तग़ाफ़ुल ने जब एक नज़र देखा अहद-ए-ग़म-ए-फ़ुर्क़त में दिल और जिगर कैसे इक ज़ख़्म इधर पाया इक दाग़ उधर देखा था बाइस-ए-रुस्वाई हर-चंद जुनूँ मेरा उन को भी न चैन आया जब तक न इधर देखा इस चश्म ग़ज़ालें को मय-ख़ाना दिल पाया उस रू-ए-निगारीं को फ़िरदौस-ए-नज़र देखा यूँ दिल को तड़पने का कुछ तो है सबब आख़िर या दर्द ने करवट ली या तुम ने इधर देखा क्या जानिए क्या गुज़री हंगाम-ए-जुनूँ लेकिन कुछ होश हो आया तो उजड़ा हुआ घर देखा माथे पे पसीना क्यूँ आँखों में नमी कैसी कुछ ख़ैर तो ही तुम ने क्या हाल-ए-जिगर देखा काँटा था चश्म-ए-यास में एक एक रग-ए-गुल मेरे लिए चमन भी बयाबाँ निकल गया दस्त-ए-जुनूँ का ज़ोफ़ से उठना मुहाल था क्या जाने किस तरह से गरेबाँ निकल गया दिल में तो आग ही वही अब तक लगी हुई माना कि चश्म-ए-शौक़ का अरमाँ निकल गया जोश-ए-जुनूँ से कुछ न चली ज़ब्त-ए-इश्क़ की सौ सौ जगह से आज गरेबाँ निकल गया