इस जहाँ में कोई मिरा न हुआ हो गए सब ख़फ़ा ख़ुदा न हुआ वो हक़ीक़त-पसंद हैं लेकिन उस का वा'दा कभी वफ़ा न हुआ मुझ पे हँसती है धूप की वादी सर छुपाने का आसरा न हुआ क्या कोई बात है पस-ए-पर्दा हक़ अदा कर के भी अदा न हुआ मेरी नज़रें टिकी हैं फ़र्दा पर हाल जो भी हुआ बुरा न हुआ मैं मुख़ालिफ़ हूँ फ़िक्र-मंदी का कोई अपना हुआ हुआ न हुआ ये रिया-कार दौर है 'नाज़िम' मैं नुमाइश को पारसा न हुआ