इस ज़मीं पर उस का मस्कन उस का घर लगता न था इस क़दर वो ख़ूबसूरत था बशर लगता न था हिज्र का मक़्तल हो या सूली विसाल-ए-यार की इक ज़माना था किसी से कोई डर लगता न था जिस क़दर मैं थक गया था उस को तय करते हुए देखने में इस क़दर लम्बा सफ़र लगता न था दूर मुझ से कर दिया कितना अनाओं ने उसे मेरे शानों पर लगा मेरा ही सर लगता न था कर रहा था जिस तरह सच्ची मोहब्बत की तलाश आने वाले मौसमों से बे-ख़बर लगता न था वो तो उस ने छू लिया इक दिन मोहब्बत से मुझे वर्ना मुझ पर फूल खिलते थे समर लगता न था जिस क़दर बदनाम था शहर-ए-वफ़ा में वो 'नईम' बेवफ़ा पहली नज़र में उस क़दर लगता न था