इस क़दर अब ग़म-ए-दौराँ की फ़रावानी है तू भी मिंजुमला-ए-अस्बाब-ए-परेशानी है मुझ को इस शहर से कुछ दूर ठहर जाने दो मेरे हम-राह मिरी बे-सर-ओ-सामानी है आँख झुक जाती है जब बंद-ए-क़बा खुलते हैं तुझ में उठते हुए ख़ुर्शीद की उर्यानी है इक तिरा लम्हा-ए-इक़रार नहीं मर सकता और हर लम्हा ज़माने की तरह फ़ानी है कूचा-ए-दोस्त से आगे है बहुत दश्त-ए-जुनूँ इश्क़ वालों ने अभी ख़ाक कहाँ छानी है इस तरह होश गँवाना भी कोई बात नहीं और यूँ होश से रहने में भी नादानी है