'जमाल' अब तो यही रह गया पता उस का भली सी शक्ल थी अच्छा सा नाम था उस का फिर एक साया दर-ओ-बाम पर उतर आया दिल-ओ-निगाह में फिर ज़िक्र छिड़ गया उस का किसे ख़बर थी कि ये दिन भी देखना होगा अब ए'तिबार भी दिल को नहीं रहा उस का जो मेरे ज़िक्र पर अब क़हक़हे लगाता है बिछड़ते वक़्त कोई हाल देखता उस का मुझे तबाह किया और सब की नज़रों में वो बे-क़ुसूर रहा ये कमाल था उस का सो किस से कीजिए ज़िक्र-नज़ाकत-ए-ख़द-ओ-ख़ाल कोई मिला ही नहीं सूरत-आश्ना उस का जो साया साया शब-ओ-रोज़ मेरे साथ रहा गली गली में पता पूछता फिरा उस का 'जमाल' उस ने तो ठानी थी उम्र-भर के लिए ये चार रोज़ में क्या हाल हो गया उस का