इस नाज़ इस अंदाज़ से तुम हाए चलो हो रोज़ एक ग़ज़ल हम से कहलवाए चलो हो रखना है कहीं पाँव तो रक्खो हो कहीं पाँव चलना ज़रा आया है तो इतराए चलो हो दीवाना-ए-गुल क़ैदी-ए-ज़ंजीर हैं और तुम क्या ठाट से गुलशन की हवा खाए चलो हो मय में कोई ख़ामी है न साग़र में कोई खोट पीना नहीं आए है तो छलकाए चलो हो हम कुछ नहीं कहते हैं कोई कुछ नहीं कहता तुम क्या हो तुम्हीं सब से कहलवाए चलो हो ज़ुल्फ़ों की तो फ़ितरत ही है लेकिन मिरे प्यारे ज़ुल्फ़ों से ज़ियादा तुम्हीं बल खाए चलो हो वो शोख़ सितमगर तो सितम ढाए चले है तुम हो कि 'कलीम' अपनी ग़ज़ल गाए चलो हो