इस क़दर ग़म मिरा बेबाक नहीं हो सकता दामन-ए-हुस्न कभी चाक नहीं हो सकता मय की तल्ख़ी भी मुसल्लम तिरा कहना भी दुरुस्त नासेहा बे-पिए इदराक नहीं हो सकता ता-अबद ज़ीस्त रहेगी यूँही बर्बाद-ए-ख़िरद गर जुनूँ साहिब-ए-इदराक नहीं हो सकता कम से कम ज़ुल्म भी महरूम-ए-मसर्रत तो रहे दीदा-ए-ग़म मिरा नमनाक नहीं हो सकता मिरा पिंदार-ए-नज़र आप के जलवों का ग़ुरूर है वो झगड़ा जो कभी पाक नहीं हो सकता आप इस दिल की अदा से अभी वाक़िफ़ ही नहीं जल तो जाता है मगर ख़ाक नहीं हो सकता उन के मम्नून-ए-सितम अपनी वफ़ाओं से गिला कौन सा ग़म तह-ए-अफ़्लाक नहीं हो सकता कह ही डाला निगह-ए-नाज़ का सब राज़ 'शफ़ीक़' आप सा भी कोई बेबाक नहीं हो सकता