इस सफ़ाई से मिरी बात का पहलू काटे रस्ता ख़ुशबू के लिए जिस तरह ख़ुशबू काटे इल्म होगा शब-ए-हिज्राँ की तवालत का तुझे मेरी मानिंद जो इक रात कभी तू काटे बा'द में आए सभी मुझ से बग़ल-गीरी को मिल के अहबाब ने पहले मिरे बाज़ू काटे सीना-ए-शब पे ज़ियाओं की दराड़ें उभरीं तीशा-ए-अज़्म से यूँ राह को जुगनू काटे ज़हर-ए-माहौल से पुर है मिरे तन का कासा क्यों न मर जाए वहीं मुझ को जो बिच्छू काटे उन के साए में रक़ीब आ के मबादा बैठें सब के सब उस ने शजर थे जो लब-ए-जू काटे अपने ज़ख़्मों को ये सहलाएगी महशर तक 'जान' दिन तन-ए-ज़ीस्त में यूँ हो के तराज़ू काटे