इस से ग़रज़ नहीं है काफ़िर कि पारसा हो बस इतनी आरज़ू है दिल मर्ज़ी-ए-ख़ुदा हो हर शय से हो नुमायाँ हुस्न-ए-तलब किसी का हर ज़र्रा मेरे दिल का लब्बैक कह रहा हो पुर-लुत्फ़ फिर न क्यों हो यक-रंगी-ए-मोहब्बत जो उन की आरज़ू हो मेरी वही दुआ हो फिर तीर आह मेरा लौटा न आसमाँ से चश्म-ए-फ़लक का ऐ दिल तारा न बन गया हो शाख़-ए-तमन्ना मेरी फूले फले जहाँ में गुल-हा-ए-आरज़ू से दामन मिरा भरा हो नग़्मा रहे न कोई जब साज़-ए-आरज़ू में मेरा दिल-ए-शिकस्ता क्या ख़ाक ख़ुश-नवा हो