इस शह्र-ए-बे-ख़ता में ख़तावार मैं ही हूँ या'नी गुलों के बीच में इक ख़ार मैं ही हूँ लूटा गया था कल जो सर-ए-राह क़ाफ़िला उस क़ाफ़िले का क़ाफ़िला-सालार मैं ही हूँ सच बोलने के जुर्म में जिस को सज़ा मिली देखो वो ख़ुश-नसीब गुनह-गार मैं ही हूँ अहल-ए-वफ़ा तो पहले भी चढ़ते थे दार पर आज इस मताअ'-ए-हक़ का तलबगार मैं ही हूँ उफ़ तक न की हो जिस ने मोहब्बत की राह में रोते हैं जिस पर अब दर-ओ-दीवार मैं ही हूँ देखा है जिस ने दौर-ए-हवादिस क़रीब से पथरा गई जो नर्गिस-ए-बीमार मैं ही हूँ लेता हूँ रब का नाम मुसीबत में आन कर दैर-ओ-हरम के बीच गिरफ़्तार मैं ही हूँ 'आलम' ख़ुदा के वास्ते कह दो जो दिल में है बज़्म-ए-सुख़न में आज का सरदार मैं ही हूँ