जब भी याद आई मुझे उस से मिलन की ख़ुशबू मुझ को याद आई बहुत उस के बदन की ख़ुशबू गुल की ख़ुशबू हो कि रैहान की भीनी ख़ुशबू उन की ख़ुशबू से मोअ'त्तर है चमन की ख़ुशबू गरचे परदेस रहा चार दहाई से परे फिर भी दिन-रात सताती है वतन की ख़ुशबू हक़ के शैदाई सर-ए-दार भी हक़ बोल गए दूर से आई उन्हें दार-ओ-रसन की ख़ुशबू ज़िक्र अल्लाह का जिन लब से हुआ चार पहर उन की साँसों में बसी मुश्क-ए-ख़ुतन की ख़ुशबू क़द तो ऊँचा है मिरे यार का उस से भी सिवा वो सरापा है मिरा सर्व-ओ-समन की ख़ुशबू है ये मिट्टी बड़ी ज़रख़ेज़ बहुत ही सोंधी गुल-बदामाँ है मिरे गंग-ओ-जमन की ख़ुशबू जब भी गुज़रा हूँ सर-ए-शाम किसी मरघट से दूर तक आती रही अपने कफ़न की ख़ुशबू कौन गुज़रा है यहाँ से कि मोअ'त्तर है हवा जानी-पहचानी सी लगती है पवन की ख़ुशबू तू ने जो ज़ख़्म दिए भर तो गए हैं फिर भी उम्र-भर आती रही उस की चुभन की ख़ुशबू हैं तो ज़ख़्मी उसी नागिन की निगह के 'आलम' फिर भी चुनते हैं सदा उस के नयन की ख़ुशबू