इस शहर-ए-निगाराँ में कोई तुझ सा नहीं है मैं कैसे बताऊँ तुझे तू कितना हसीं है फूलों का गुदाज़ इक तिरे पैकर का हवाला महताब से बढ़ कर तिरी रख़्शंदा जबीं है ख़ुशबू तिरे साँसों की रची है रग-ओ-पय में महसूस यही होता है तू मेरे क़रीं है कम मिलने का एहसास-ए-गराँ लगता है तेरा अब लुत्फ़-ओ-करम भी तिरा पहले सा नहीं है वो झील की पहनाई में इक क़तरा है लेकिन रुक जाता है जब पलकों पे आ कर तो नगीं है ज़िक्र-ए-ग़म-ए-दिल औरों से अच्छा नहीं लगता ये दर्द-ए-मोहब्बत तो मिरे दिल का मकीं है हँसता हुआ मिलता था सदा बज़्म में 'तन्हा' अब जाने वो क्यों इतना उदास और हज़ीं है