इस तरह वो ध्यान मेरा खींचता है जिस तरह पैसे को पैसा खींचता है मैं इरादा तो नहीं करता सफ़र का क्या करें कश्ती को दरिया खींचता है जिस क़दर ख़ुश लग रहे हैं हैं नहीं हम ये तो तू तस्वीर बढ़िया खींचता है पहले तो बाहों में भरता है वो मुझ को और फिर धीमे से पर्दा खींचता है जो मोअज़्ज़िन बन गया था तेरे दिल का आज वो मंदिर में क़श्क़ा खींचता है रोकती है बे-सफ़र लोगों को दहलीज़ राहगीरों को तमाशा खींचता है सरहदें बनती बिगड़ जाती हैं 'हर्षित' जब कोई काग़ज़ पे नक़्शा खींचता है