कुछ तो पिंदार-ए-मोहब्बत की वो इज़्ज़त रक्खे इतना मुश्किल है त'अल्लुक़ तो कहो मत रक्खे ग़लतियाँ देख के चुप क्यों रहूँ उस के आगे टोकता है तो वो सुनने की भी हिम्मत रक्खे मैं तो मंज़िल की फ़क़त राह दिखा सकता हूँ हर क़दम अपने वो अपनी ही बदौलत रक्खे कौन सुनता है किसी और का ग़म दुनिया में हम को देखो कि हैं सीने में क़यामत रक्खे मैं इसी ख़ल्क़ की ख़िदमत से ख़ुदा पा लूँगा और बैठे रहो तुम अपनी इबादत रक्खे ये मोहब्बत ही मुझे क़ैद न लगने लग जाए इश्क़ के खेल में इतनी तो सुहूलत रक्खे ख़ुद को जब ख़िदमत-ए-इंसाँ के लिए वक़्फ़ किया मेरी जिस शख़्स को जितनी हो ज़रूरत रक्खे मैं भी कुछ नरमी से पेश आऊँगा लेकिन वो भी अपनी पलकों पे ज़रा अश्क-ए-नदामत रक्खे उस की ख़्वाहिश के मुताबिक़ ही किए सारे काम अब तो 'हर्षित' वो मिरे हाथ पे उजरत रक्खे