इसे मंज़ूर नहीं छोड़ झगड़ता क्या है दिल ही कम-माया है अपना तो अकड़ता क्या है अपने सोए हुए सूरज की ख़बर ले जा कर इस कमीं-गाह में किरनों को पकड़ता क्या है जानता है कि उतर जाएगी दिल में मिरी बात वर्ना सुन ले तू बता तेरा बिगड़ता क्या है शबनम-ए-ताज़ा है ये फूल हैं या पते हैं देख शाख़-ए-शजर-ए-शाम से झड़ता क्या है दो क़दम है शब-ए-ग़म से शब-ए-वादा ऐ दिल चंद आहों के सिवा राह में पड़ता क्या है दिल तो भरपूर समुंदर है 'ज़फ़र' क्या कीजे दो घड़ी बैठ के रोने से नबड़ता क्या है