इश्क़ ऐसा अजीब दरिया है जो बिना साहिलों के बहता है मुग़्तनिम हैं ये चार लम्हे भी फिर न हम हैं न ये तमाशा है ऐ सराबों में घूमने वाले दिल के अंदर भी एक रस्ता है ज़िंदगी इक दुकाँ खिलौनों की वक़्त बिगड़ा हुआ सा बच्चा है इस भरी काएनात के होते आदमी किस क़दर अकेला है आईने में जो अक्स है 'अमजद' क्यों किसी दूसरे का लगता है