इश्क़ और नंग-ए-आरज़ू से आर दिल-ए-ख़ुद्दार पर ख़ुदा की मार और क्या देखना है ज़ौक़-ए-नज़र हुस्न और आईने से हो बेज़ार शिकवा-ए-जौर है न शौक़-ए-करम यूँ भी आना था अहल-ए-दिल को क़रार शाद अब क्यूँ नहीं दिल-ए-मग़्मूम हुस्न को ख़ुद जफ़ा से है इंकार लुत्फ़ ऐसा कि कुछ नहीं तख़सीस जैसे सब के लिए खुला बाज़ार एक बोल एक दाम सौदा नक़्द और न कुछ भाव-ताव की तकरार सिक्का-ए-कम-अयार दाग़-ए-जिगर पूछ उस की नहीं कहीं ज़न्हार संग-रेज़ों के दाम उठते हैं पारा-ए-दिल है मुफ़्त भी बेकार सर्द-मेहरी है बीच की दल्लाल जिस का दोनों तरफ़ से है बेवपार रहन है उस के नाम जो कुछ है हुस्न का नाज़ इश्क़ का पिंदार ग़रज़ इस रब्त से हुए हैं बहम इश्क़ बे-कैफ़ ओ हुस्न कम-आज़ार गांठते हैं फटे हुए जज़्बात हो के सय्यद बने 'सलीम' चमार